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हुजूर गारे हिरा में Huzur Gare Hira Mein

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नुबुव्वत मिलने का वक्त जितना करीब होता गया, उतना ही रसूलुल्लहा स . तन्हाई को जियादा पसन्द करने लगे | सब से अलग हो कर अकेले रहने से अप का बडा सुकून मिलता था | आप अकसर खाने पीने का सामान ले कर कई कई दिन तक मक्का से दूर जाकर “हिरा” नामी पहाड के एक गार में बैठ जाते और इब्राहीम तरीके और अपनी पाकिजा फितरत की रहनुमाई से अल्लाह की इबादत और जिक्र में मश्गुल रहते थे | अल्लाह की कुदरत में गौर व फिक्र करते रहते थे और कौम की बुरी हालत को देख कर बहुत गमजदा रहते थे, जब तक खाना खत्म न होता था, आप शहर वापस नही आते थे | जब मक्का की वादियों से गुजरते तो दरख्तों और पत्थरों से सलाम करने की आवाज आती | आप दाएँ बाएँ और पीछे मूड कर देखते, तो दरख्तों और पत्थरों के सिवा कुछ नजर न आता था | इसी जमाने में आप को ऐसे ख्वाब नजर आने लगे के रात में जो कुछ देखते वही दिन में जाहिर होता था | यही सिलसिला चलता रंहा के नुबुव्वत की घडी आ पहुँची और अल्लाह तआला ने आप को निबुव्वत अता फर्माई |                                        

हुजूर सल. का हजरत खदीजा से निकाह Hujur sal. Ka Hajart khadija se nikah

रासूलुल्लाह स . का पहला निकाह मक्का की एक शरीफ खातून खदीजा बिन्ते खुवैलिद से हुआ | हजरत खदीजा एक दौलतमंद बेवा औरत थी | इस से पहले उन की दो शादियाँ हो चुकी थी | उन्होंने हुजूर की अमानत व दियानत और हुस्ने अखलाक जैसी सिफात को देख कर निकाह का पैगाम दिया था, हालाँके इस से पहले कुरैश के बडे बडे सरदारों के पैगाम को ठुकरा चुकी थी |  हुजूर स . ने इस पैगाम का तजकेरा अपने चचा अबू तालिब से किया, जिस को उन्होंने बखुशी कबूल कर लिया और अबू तालिब बनी हाशीम और मुजर के सरदारों को ले कर हजरत खदीजा के मकान पर गए | अबू तालिब ने निकाह का खुतबा पाढा | उस वक्त हजरत खदीजा की उम्र चालीस साल और अप स. की उम्र शरीफ २५ साल थी | हजरत खदीजा आखरी वक्त तक हुजूर की जाँनिसार और गमख्वार बीवी रही | उन की वफात के बाद भी हुजूर स . उन की खुबियों का तजकेरा करते रहते थे | हजरत इब्राहीम के अलावा आप की सारी औलाद हजरत खदीजा से ही है |